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केंद्रीय नेतृत्व पर टिका कर्नाटक चुनाव, स्पष्ट नहीं है राज्य की चुनावी तस्वीर

कर्नाटक चुनाव

कर्नाटक चुनाव केंद्रीय नेतृत्व पर टिका, अमित शाह और राहुल गांधी लगा रहे अपनी पार्टियों के लिए जोर, मंदिर और मठ के दर्शन तो खैर कर्नाटक में हर राजनीतिक दल के लिए अहम हो गया है।

बेंगलुरू । ऐसे समय जबकि यह मान कर चला जाता है कि चुनाव में अब जनता जिसे भी चाहती है उसे दिल खोलकर वोट देती है, कर्नाटक इस मापदंड से बाहर खड़ा दिख सकता है। चार-पांच महीने पहले गुजरात का नतीजा जरूर थोड़ा नजदीकी रहा लेकिन परिणाम को लेकर संशय कभी नहीं रहा। लेकिन, कर्नाटक मतदान के 20 दिन पहले तक छका रहा है। मुख्य प्रतिद्वंद्वी दल कांग्रेस और भाजपा का प्रदेश नेतृत्व अपने बूते पार्टी की नाव पार लगा पाएंगे ऐसा नहीं दिखता है। दारोमदार पूरी तरह केंद्रीय नेतृत्व के पाले में है।

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पिछले एक महीने में कर्नाटक का छह दौरा कर चुके हैं। रैलियों के साथ-साथ कार्यकर्ता सम्मेलन, संवाद आदि पर उनका ध्यान है। रैलियों में जनता का अद्भुत समर्थन उन्हें मिल रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी लगातार दौरे पर हैं और रैलियां कर रहे हैं। मंदिर और मठ के दर्शन तो खैर कर्नाटक में हर राजनीतिक दल के लिए अहम है। भाजपा के स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी की रैलियां तय होनी बाकी हैं। बहरहाल, कांग्रेसी खेमे में चुनावी सिहरन ज्यादा है।

कांग्रेस नेता व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने चामुंडेश्वरी से चुनाव लड़ना तय किया है। लेकिन, पार्टी को दोबारा जीत दिलाने का दावा कर रहे सिद्धारमैया का विश्वास डिगा हुआ है और वह बादामी सीट से भी पर्चा भर सकते हैं। इसलिए वहां अभी दूसरे उम्मीदवार को फार्म नहीं दिया गया है। अंदरूनी खींचतान और बगावत ही इतनी ज्यादा है कि सिद्धारमैया का परेशान होना लाजिमी है। कांग्रेस में ऐसे विधायकों की बड़ी संख्या थी, जिनके खिलाफ एंटी इनकमबैंसी थी और वहां कांग्रेस के दूसरे प्रत्याशी बहुत भरोसा लिए बैठे थे कि उनको टिकट मिलेगा।

लेकिन, भारी विरोध और विद्रोह की आशंका से कांग्रेस ने 14 उम्मीदवारों को छोड़कर सभी पुराने साथियों पर भरोसा जताया है। अब कांग्रेस को भाजपा या अन्य पार्टियों से ज्यादा अपने नेताओं से परेशानी है। कांग्रेस के धुरंधर नेता किसी भी तरह नहीं चाहते कि सिद्धारमैया की गाड़ी इस बार वैतरणी पार हो। जातीय खांचों में बंटे हुए कर्नाटक में समाज की दुहाई भी इन्हीं कांग्रेसी नेताओं की ओर से दी जा रही है।

एक कांग्रेसी नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, ‘साढ़े सात फीसदी वोट वाले सिद्धारमैया साढ़े 92 फीसदी का भविष्य तय करेंगे यह कितना उचित है।’ बड़ी बात तो यह है कि कांग्रेस के पास कोई केंद्रीय स्टालवर्ट नहीं है, जो भीड़ खींच सके और उनके मसलों को संबोधित कर सके। सिद्धारमैया ने हताशा में ही लिंगायत कार्ड खेला है।

हालांकि, वीर शैव और लिंगायत जो एक समय भाजपा के मुख्यमंत्री उम्मीदवार येदियुरप्पा के खांचे में ही थे वह यह जान चुके हैं कि सिद्धारमैया का यह कार्ड बहुत प्रभावी नहीं होगा और इस पर अंतिम मुहर तो केंद्र को ही लगानी होगी। ऐसा नहीं कि भाजपा में सब कुछ दुरस्त है और यहां विरोध या बगावत के सुर नहीं हैं। लेकिन, उन्हें साधने की कवायद शीर्ष नेतृत्व से हो रही है। मैदान पूरा सज चुका है। सेना भी मैदान में डटी है। अब इंतजार है मुख्य सेनापति का।






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