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उत्तराखंड के चुनाव में नहीं चलता परिवारवाद का जादू

इंडिया वोट कर टीम के अनुसार
प्रदेश के चुनावी समर में परिवारवाद की सियासत को अकसर मुंह की खानी पड़ी है। संसदीय और विधानसभा चुनाव का इतिहास गवाह है कि राजनीतिक विरासत संभालने के लिए जब-जब कदम बढ़े, शुरुआत लड़खड़ाने वाली रही। प्रदेश की राजनीति में कई स्थापित चेहरों को पहले ही चुनाव में मतदाताओं ने खारिज कर दिया। सियासी चुनौतियों की भट्टी में जो तपे वे कुंदन बन गए और जो मुकाबले में नहीं टिक पाए वे नेपथ्य में चले गए।

अविभाजित यूपी के समय से लेकर अब तक हुए तमाम चुनावों में परिवारवाद का प्रयोग हुआ। संयोग से ये प्रयोग कांग्रेस की ओर से ज्यादा हुए, मगर पहले पायदान पर यह प्रयोग कोई खास कमाल नहीं दिखा पाए। इसकी सबसे ताजा मिसाल 2014 का लोक सभा चुनाव है, जिसमें हरिद्वार संसदीय सीट से कांग्रेस ने मुख्यमंत्री हरीश रावत की धर्मपत्नी रेणुका रावत को प्रत्याशी बनाया था। इस सीट पर हरीश रावत सांसद थे।

चुनाव में रेणुका को हार का सामना करना पड़ा। टिहरी लोस सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के बेटे साकेत बहुगुणा को मात मिली। पराजय के बाद साकेत मुख्यधारा की सियासत से गायब हैं। दोनों ही सीटों पर परिवारवाद का जादू नहीं चल सका और मतदाताओं ने दिग्गज नेताओं के रिश्तेदारों को खारिज कर दिया।

Source : Amar Ujala






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